मुसाफिर की कलम: पत्रकारों में एकता???


मुसाफिर--क्यों भई ये क्या घपला कर रखा है पत्रकारों के साथ तुम्हारी सरकार ने? 


प्यारे लाल--क्या कर रखा है? 


मुसाफिर--पूर्ण बहुमत वाली सरकार बना कर जनता ने गलती कर दी क्या?


प्यारे लाल---क्यों क्या हो गया सर?


मुसाफिर--एक तो देश पहले ही मंदी के दौर से गुजर रहा है, उस पर तुमने पत्रकारों केआगे से खाने की थाली खींच ली। पत्रकारों को विश्वास में लिए बिना ही तुम्हारे सूचना वाले मन मर्जी के फैसले लिए जा रहे हैं, जिसको चाहे सरकारी विज्ञापन दे रहे हैं, ये कोई तरीका नहीं है तुम्हरा। ..(मुसाफिर ने प्यारे के कान के पास आकर धीरे से कहा )... उनसे क्या मोटा मिलता है भई? कुछ और लोग भी हैं टीम में, लगता है छोटे-मँझोलों को ज़्यादा ही हल्के में ले रहे हो। मुख्यमंत्री से कह दो पत्रकारों से न बिगाड़ें ।


प्यारे लाल--(मुस्कुराते हुए)... अच्छा, गीदड़ भबकी !....देखो भई डरने की जरूरत उनसे होती है जो सरकार को डराने का दम रखते हों, ये छोटे-मंझोले सरकार को घुटनों पर ले आयेंगे ! ...  मुझे नहीं लगता। 


मुसाफिर---तुम जानते नहीं प्यारे लाल जी छोटे-मंझोले अखबारों ने ही उत्तराखण्ड के आंदोलन को मुकाम तक पहुँचाया था। सरकार किसी मुगालते में न रहे। खोजी पत्रकारिता भी शिद्दत से छोटे-मंझोले ही करते हैं, और उनको छापने का दम भी वही दिखाते हैं ।  


प्यारे लाल-- (प्यारे लाल थोड़ा सकपकाया , सोचा और कुछ रुक कर बोला)... हमारी बात कहने के लिए चार अखबार ही काफ़ी हैं मियां, बाकी तो भीड़ है ...आगे क्या होता है देखेंगे।


मुसाफिर--जिनको तुम भीड़ कह रहे हो उन्हीं का हवाला देकर सरकार से तुम भारी भरकम बजट वसूलते हो। अगर चार अखबारों की ही बात करोगे तो इतने ताम झाम वाले विभाग की जरूरत ही क्या है। अगर छोटे-मंझोले इकठ्ठे हो गये तो सरकार को मुश्किल में डाल देंगे।


प्यारे लाल-- अच्छा ! पहले तुम कभी इकट्ठे हुए हो मुझे तो याद नहीं पड़ता।  जिस दिन तुम अपनी -अपनी ईगो छोड़ कर वास्तव में इकट्ठे हो जाओगे, तो हम भी घुटनो पर आ जाएंगे। खैर कोशिश कर के देख लो शायद कोई बात बन जाये। अच्छा इज़ाज़त दो चलता हूँ दीवाली के गिफ्ट भी कुछ चुनींदा पत्रकारों के घर पहुचाने हैं। 


मुसाफिर--चुनिंदा से तुम्हारा मतलब?


प्यारे लाल-- ..(प्यारे लाल उठा , मुस्कुराया और चलते चलते बोला)... समझने वालों के लिये इशारा ही काफी है। ... बाकी देखते हैं विभाग और सरकार पर कितना दबाब बना पाते हैं आप।


मुसाफिर प्यारे लाल को जाते हुए देखता रहा और.....सोचने लगा... क्या वास्तव में पत्रकारिता लाला की दुकान बन कर रह गई है? ... क्या लिखाड़ियों की लेखनी में जान नहीं रही?...क्या पत्रकार एक हो पाएंगे?... ऐसे ही मिले जुले विचार उसके मस्तिष्क में काफी देर तक तैरते रहे।


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